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चलते-चलते / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

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एक वसन्ती गीत
और यह
आज लिखा है
चलते-चलते!

अपने दिन-रातों का कैसा
उलझा-सुलझा
यह वितान है
कितनी यह धरती
अपनी है
कितना अपना आसमान है
कितने हाथ सहारा देंगे
कितने
टाँग खीचने वाले
डाल-पात नोचेंगे कितने
कितने
जड़ें सींचने वाले
कल
सूरज से बतियाना है
अँधियारों में
ढलते-ढलते!
साँसें भरती हरियाली वह
कल कुछ ऐसी बात कह गयी
नदिया एक
उल्टियाँ करती
अनजाने पथ भटक बह गयी
वंश मिट गया अमराई का
शिलान्यास है महा नगर का
चका चौंध में गाँव बिचारा
भटक गया पथ अपने घर का
बैठे मिटा भाग्य रेखाएँ
हाथ बिचारे
मलते-मलते।

यों वसन्त
कितनों ने देखा
कब आया कब गया निकल कर
बन्द खिड़कियों दरवाजों पर
लौट गया होगा दस्तक धर
पर बासी अखबारों से ही
लेकर कुछ वासन्ती छवियाँ
प्रशंसनीय हो गयीं
हमारे गीतों की वे अनुपम कृतियाँ
भटके कितने बुनियादों से
हम निसर्ग को
छलते-छलते।