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चलाकर दौर आतिश का बना नादान रहता है / शुभा शुक्ला मिश्रा 'अधर'

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चलाकर दौर आतिश का बना नादान रहता है।
कहाँ इंसान खोया है कहाँ इंसान रहता है॥

इबादतगाह देवालय न सज़दों में उसे खोजो।
हमारी रूह के अंदर छुपा भगवान रहता है॥

वही रिश्ता जियेगा उम्र जिसमें नेक नीयत हो।
उजाला भी वहीं से है जहाँ ईमान रहता है॥

मुकम्मल ज़िंदगी के ख्वाब हों यह आरजू दिल में।
वफादारी मुहब्बत से मगर अंजान रहता है॥

खुशी के पल गुजर जाते ठहरकर दो घड़ी केवल।
कि तन्हाई उदासी गम बहुत सामान रहता है॥

रहे जो खार में हँसकर भुलाकर हर तपिश तल्खी।
उसी का खिलखिलाता इक हसीं बागान रहता है॥

न इतराना अमीरी में कभी तू भूलकर ऐ! दिल।
गरीबी में 'अधर' जीना नहीं आसान रहता है॥