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चली आना / सुनील कुमार शर्मा

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आना ऐसे
जैसे पतझर के बाद बसन्त
आना तुम,
जैसे आती है नदी
अपनी धुन में
नहीं हो जिसे
फ़िक्र रंग की
रूप की
या फिर किसी की

चली आना तुम
चित्रकार की तूलिका में
गढ़ना एक ऐसी नदी
जो हो अल्हड़ और मदमस्त
बहती हो अपनी धुन में
नहीं हो जिसे फ़िक्र
जाति की, धर्म की
रूप की या रंग की
या फिर किसी सीमा की।

तुम आना बारिश की
फुहार जैसे,
देना भर
अंकुरों में जीवन रस
और बन जाना,
किसानों के होठों की हँसी
बच्चों की आँखों में सपने
बनकर तैर जाना
निमन्त्रण है तुम्हें
आना ज़रूर आना॥