चले आओ तुम / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
निराधार मेरे जीवन के बन आधार चले आओ तुम ।
पतझारों से ऊब चुका हूँ लिये बहार चले आओं तुम ।
व्यथा नहीं घटती है मन की टेर लगाये है बस तेरी,
क्षण भर के ही लिए सही प्रिय ! अब इस पार चले आओं तुम ।
मन मन्दिर की डर मुँडेर पर बोल रहे यादों के पंछी,
कहाँ गये हो प्रियतम ! मेरे लेकर प्यार चले आओं तुम ।
बीत रही मेरे प्राणों पर किन्तु न कोई दिखे सहारा,
एक तुम्ही हो औषधि मेरी बन उपचार चले आओ तुम ।
आँखें दर्शन को आतुर है सजल रहा करती है हरपल,
क्यों रूठें हो प्यारे ! कुछ तो करो विचार चले आओ तुम ।
आखिर कब तक प्राण पपीहा कहाँ पी कहाँ रट पायेगा ?
प्यास बुझाने को उर की बन स्वाति फुहार चले आओ तुम ।
जीवन की यह नाव फँसी है सागर की ज्वारिल लहरो में,
टेर रहा, मन का माँझी बन पतवार चले आओ तुम ।