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चले जाना ऐसे / राजकिशोर राजन
Kavita Kosh से
जब उत्सव मना रहे थे लोग
उड़ रहा था अबीर-गुलाल
उमड़-घुमड़ रहा था आँखों में वसन्त
वह चला गया
जब छोटकी पतोहु बनी थी पहली बार माँ
लोगों के पैर नहीं पड़ रहे थे धरती पर
हुलस-हुलस कर देखने में लगे थे सभी
नवजात का टेसू-सा लाल मुख
पहली बार सास हल्दी डाल
गरम कर रही थी
बहू के लिए दूध
वह चला गया
जब माघ मास की रात्रि में पड़ रहा था पाला
घरों-दालानों में दुबके थे लोग
माएँ अपने शिशु को गोदी में ले बिछावन पर
वह चला गया
जाना तो सबको होता है
पर ऐसे चले जाना
कलेजे में हूक उठती है दोस्त !