चलो, चलें कि वे, बुलाते हैं / महेश कुमार केशरी
चलो, चलें पहाड़ों के
पास ऊपर चलकर आवाज
लगाई जाये ओर पुकारा जाये
किसी का नाम देखना पहाड़
भी हमें बुलाते हैं
चलो, किसी, आदिम सभ्यता
की ओर, जहाँ, बिताएँ
रात किसी गुफा में
और, महसूस कर सकें ,
खोह, में समाये उस आदिम ड़र
के रोमांच को!
चलो, जँगल बुला रहे हैं,
चुनकर खाया जाये जंँगलों
में गिरा फल
कि, कैसे, नदियाँ, बुला
रही हैं, कि, चलें, करने
नौका विहार
कि, फिर, इस बार कोयल का
गीत, सुन आएँ, कि जंँगल
पुकार रहा है !
कि, आओ, गाएँ कोई,
आदिम गीत, जिसे सुनकर
मन हो जाये पुलकित!
सुन, आयें फिर, से नानी की
गोद, में, रानी परी और
चुड़ैल की कहानियाँ!
कि, चलो, पढ़ने निकल
पड़े.. किसी सभ्यता
की भाषा
चलो, बनायें, मिट्टी के
वही पुराने बर्तन
चलो, चलें, किसी अंजान टापू
पर इस कोलाहल से दूर..
जहाँ, समंँदर पर तैरती
हो सूर्य की रश्मियांँ
कि, पुकार रही है सूर्य की
खत्म होती लालिमा...
घुँघलाती हुई एक शाम...
एक लालटेन टंँगी झोपड़ी ..
मिट्टी के बर्तन में पकता कहीं
खीर
चलो चलें आदिम
स्वाद और गँध की ओर
वो बुला रहें हैं !