भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चलो कोई बात नहीं / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ हुआ नहीं शहर में इधर
जैसा कि संभावना थी बहुत कुछ होने की

बच्चे वैसे ही झगड़ रहे हैं
वैसे ही रो रहे हैं, लड़-भिड़ कर
बड़े-बुजुर्ग लोग व्यस्त हैं चर्चा में इधर
 चाय की गर्मी और मौसम की तल्खी बताए जा रहे हैं

कुत्ते टहल रहे हैं
अपने उसी अंदाज में सड़कों पर
सांड उसी रौ में घूम रहे हैं सीना चौड़ा किए गलियों में
बैल सानी-पानी के इंतज़ार में पघुराए जा रहे हैं

दुही जा चुकी हैं गायें
रोटी की तलाश में निकल चुकी हैं सड़कों पर
भीड़-भाड़ में व्यस्त लोग निहार रहे हैं उसके थन
थकावट महसूसते पसर गई हैं एक कोने में

शाम को आसार थे बारिस होगी बहुत
मेढक उतर आए थे अपना सुख ढूंढते
परिवेश में हवा का रुख समझ
मौसम की बेरुखी में निराश हो हो कर भागे जा रहे हैं

गौरैया उदास है अधिक
अनाज पछोरा नहीं गया सूप से आज किसी घर
घर के मुहारे नहीं रखा गया कहीं पानी का कोसा
कौवे भूल गये हैं काँव काँव करना, लोग सोए जा रहे हैं

 इधर शोरगुल धर-पकड़ के बीच
संभावना शांति की दिखाई दे रही है फिलहाल
दिमाग ने बंद कर दिया है काम करना
कविता की शक्ल में हादसे बनाए जा रहे हैं

सब दुखी हैं सभी कहीं सब ख़ुशी हैं
सुख दुःख के समीकरण बिठाए जा रहे हैं
 उदास है शाम आज के लिए कवियों की इधर
चलो कोई बात नहीं फिर भी गाये जा रहे हैं