चाँचरी / शब्द प्रकाश / धरनीदास
233.
निर्गुन जे गुन-हित कवनि विधि पावै हो।
मुरति मनोहर देखि सुरति सँग लागै हो।
उर उपजै अनुराग आतमा जागै.।
मोह मया ममता मद को हसि आगै.।
कुल कर नाता तोहि उलटि पथ लागै.।
भरम सकल भहराय, साधु मिलि बैठे.।
पाँच जने सँगलाय, महलमेँ पैठे.।
पावै जिय विश्वास घरहिँ घर छावै.।
बिनु कर ताल बजाय बिना मुख गावै.।
डोलै सहज सुभाव निरन्तर भावै.।
नहि अवरन ते हेत न वैर बढ़ावै.।
प्रगटे जोति अनूप नाहि कहि आवै.।
गनै न राजा रंक निसंक जनावै.।
चहुँ दिशि चले सुवास दास जगजानी.।
जोतिहिँ जोति समान पानिमेँ पानी.॥
तरि गये संत अनेक केते जन भाखी।
देखो सोचि विचारि निगम है साखी॥
वहुरि न आवै जाय अमर युग चारी।
गावै धरनीदास सुनो नर नारी॥1॥
234.
प्रभु की माया सबहिँ नचावै।
देव दैत्य ऋषिराज महामुनि, और को कौन चलावै।
जो नट बंदर को गर बाँधे, द्वारहिँ द्वार फिरावै।
लुके चुके तो झिझकोरे दे, चुके छरी चितावै।
भूख प्यास दुख द्वंद वियापै, भूषम आनि पेन्हावै।
थेइ थेइ करि डंफ बजावै, लोग तमाशे धावै।
बाँधे मरै सरै नर प्रानी, को कहि केहि समुझावै।
धरनी अवर उपाय बनै नहिँ, छूट जो राम छोड़ावै॥2॥
235.
भाइ रे संत सिपाही ताके।
जाको लोक अनेक सराहै संत महाजन जाके।
जगमँ रसति चलावन आये, शब्द लिये फरमाना।
विरे आय शहरके वासी, तिन शब्दहिँ पहिचाना।
जलमेँ पूल पहार मठाओ, जंगल जरिते जारो।
धरि लो सावित राह सुधारो, डरे नहि चोर चुहारो।
संगति जोरि चढे सत मारग, भव बंधनते छूटे।
धिगते वपुरे बिनु सतसंगति, देव निहारि न लूटे।
भक्ति बिना भव पार न पैहै, धरनी कहै प्रचारी।
राजा रंक तुरुक हिन्दू जत, सुनो सकल नर नारी॥3॥
236.
मनरे ते कौन करै रजपूती।
गहागहा गह होत नगारो, कहाँ रहो है सूती।
पाँच पचीस तीनि दल साजे, अवरो सेन बहूती।
अब तोहि घेरि करन चाहत हेँ, ज्यों पिजरा मेँ तूती।
कुल परिवार लगे जन परिजन, ज्यों तरुनी तन दूती।
परिहरि परपंचिन संगति अति, अंतरगृ अवधूती।
राज-समाज अमरपद पैहो, होइ है प्रवल प्रभूती।
धरनी सोचि विचारि निरखि लखि, नाहिन और सपूती॥4॥