चाँद का खोटा सिक्का / बसन्तजीत सिंह हरचंद
अहो ,
सांवली रात्रि !
बादलों के चिथड़ों में लिपटी ,
मैला अँचरा फैलाए
तू कहाँ जा रही है ?
मेरी गली की
भिखारिन की भाँति ही ,
तुम्हारे अँधियारे केश
और गंदे चिथड़े ,
उड़ रहे हैं इधर - उधर
शीत पवन के
झकोरों से .
तेरे कानो में भी
बालियाँ नहीं शायद
गालियाँ हैं ,
निठल्ले पति की ,
और रुदन है
मरियल भूखे शिशु का
जिन्हें तू छोड़ आयी है घर .
यह किसने
तुम्हारे आँचल में
चाँद का खोटा सिक्का
फेंक दिया ?----
झाँक रहा जो फटे छेद से बाहर ,
भाग जाने को
छुटकारा पाने को
इस मैले - कुचैले आँचल से
तंग आकर .
सूखा से फटे खेतों जैसे
तुम्हारे पाँव भी
बिवाइयों से क्या
दुख रहे हैं ?----
कि तू अमराइयों
खलिहानों ,मैदानों में
चल रही है
अत्यन्त मंद गति से .
घर के
तिमिरों का भार उठाए
तू कहाँ जा रही है ?----
अंचला फैलाकर
री, रात्रि !!
(समय की पतझड़ में ,१९८२)