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चाँद गाओ गीत फिर से / अमरेन्द्र
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चाँद गाओ गीत फिर से,
है निमंत्राण घन-तिमिर से।
कुंज में बोली चिरैया
कुछ तो आखिर बात होगी,
झील के बैठे किनारे
ही सँवरती रात होगी;
छुम छनन-सा कुछ हुआ है
चित्त जो ऐसे है च×चल,
चाँदनी की शर्वरी में
सोच कर क्या प्राण पागल!
कौन-सा संदेश पाकर
रसभरे ये रोम निरसे !
कामिनी महके अघा कर
रातरानी खूब परसे,
स्वाति की इक बूंद खातिर
आज चातक-ताल तरसे;
हरसिंगारी ये हवाएँ
मोह-बंधन-पाश फेंके,
कुछ झिझक, संकोच कुछ-कुछ
हैं खड़े पर, बाँह टेके ।
चैत की है हाँक आई,
डर नहीं लगता शिशिर से।