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चाँद बनकर तुम्हारी अटा पर चढ़ूँ / जितेन्द्रकुमार सिंह ‘संजय’

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चाँद बनकर तुम्हारी अटा पर चढ़ूँ
प्रीति पुलकित लखूँ मैं तुम्हें रात भर।

काम्य-कादम्ब-रसपान करता रहूँ
मंजु-मंजुल अधर स्नेह मुरली रहे
छोड़ भूधर-सदन फूट निर्झर चले
गीत माधुर्य मंगल कमल पद गहे
मौन संकेत अभिलेख मेरा पढ़ो
प्रीति पुलकित लखूँ मैं तुम्हें रात भर।
चाँद बनकर तुम्हारी अटा पर चढ़ूँ
प्रीति पुलकित लखूँ मैं तुम्हें रात भर॥

रूपसी चाँदनी में नहाये हुए
प्राण-अंजलि भरा घट सुधारस झरे
सौम्य सुषमा सफल सार बढ़ता रहे
धीर गम्भीर सागर हृदय में भरे
मूर्ति मोहन मधुर ज्योति गंगा मढ़ो
प्रीति पुलकित लखूँ मैं तुम्हें रात भर।
चाँद बनकर तुम्हारी अटा पर चढ़ूँ
प्रीति पुलकित लखूँ मैं तुम्हें रात भर॥

केश-बादल तले वक्र भ्रूरेख-से
काम की शिंजनी ध्वस्त होती रहे
मोह-तम की घटा में पली दामिनी
भेद अन्तस सहज ज्ञान ढोती रहे
खोल घूँघट मुखच्छवि बहिर्गत कढ़ो
प्रीति पुलकित लखूँ मैं तुम्हें रात भर।
चाँद बनकर तुम्हारी अटा पर चढ़ूँ
प्रीति पुलकित लखूँ मैं तुम्हें रात भर॥

बाँह से खोल दो लाज-गहना सखी!
मुक्त प्रणयी नयन का मुखर छन्द हो
भेद कोई न हो भूमि-आकाश में
भोग-संयोग का द्वन्द्व मकरन्द हो
उच्च उन्तन शिला पद प्रहर्षित बढ़ो
प्रीति पुलकित लखूँ मैं तुम्हें रात भर।
चाँद बनकर तुम्हारी अटा पर चढ़ूँ
प्रीति पुलकित लखूँ मैं तुम्हें रात भर॥