भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चांद और पत्थर (2) / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
चांद तुम पत्थर नहीं हो !
है तुम्हारा भी हृदय कोमल,
स्नेह उमड़ा जा रहा छल-छल
हो बड़े भावुक, बड़े चंचल,
- इसलिए, मेरे निकट हो,
- प्राण से बाहर नहीं हो !
- इसलिए, मेरे निकट हो,
राह अपनी चल रहे हो तुम,
आँधियों में पल रहे हो तुम,
शीत में हँस गल रहे हो तुम
- इसलिए कहना ग़लत है —
- ‘तुम मनुज-सहचर नहीं हो !’
- इसलिए कहना ग़लत है —
हो किसी के प्यार बन्धन में,
हो किसी की आश जीवन में,
गीत के स्वर हो किसी मन में,
- सोच इतना ही मुझे है —
- हाय, धरती पर नहीं हो !
- सोच इतना ही मुझे है —