भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चांद भी ज़र्द-रू हुआ, तारों में भी ज़िया नहीं / रमेश तन्हा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चांद भी ज़र्द-रू हुआ, तारों में भी ज़िया नहीं
मैं हूँ कि दूर दूर तक, मेरा भी कुछ पता नहीं।

चल गयी जाने क्या हवा, बोलता घर खण्डर हुआ
रौज़नों-दर हैं रू-सियाह तक में भी दिया नहीं।

टेढ़ी सी है मिरी डगर चलना है मुझको रात भर
उस पे भी मेरा हमसफ़र कोई मिरे सिवा नहीं।

इम्तिहां है क़दम क़दम आदमी की हयात भी
कौन है ऐसा अपने ही, साये से जो डरा नहीं।

ज़ब्त ने बन्द कर दिये शौक़ के सारे रास्ते
यानी वो दर्द मिल गये जिनकी कोई दवा नहीं।

बाग़ में तितलियाँ के पर, लगते हैं खुशनुमा मगर
मचले है उन पे क्यों नज़र कोई ये जानता नहीं।

मेरी उड़ान का फुसूं काग़ज़े-फ़न पे गौना गूं
शायरे-खुश-ख़याल हूँ, ताइरे-खुश-नवा नहीं।

तोहफा-ए-वज्दो-सर-खुशी, हासिले-फिक्रो-आगही
शायरी अज़ पयम्बरी बन्दगी है ख़ुदा नहीं।

सोच की एक जस्त है कल की लगन में मस्त है
हासिले बूदो-हस्त है शायरी और क्या नहीं।

छोड़ के इस दयार को, किज़्ब के ख़ारज़ार को
आओ चलें वहां जहां झूठ नहीं रिया नहीं।

ख़ातिरे-मक़्त-ऐ-ग़ज़ल तन्हा को बे अलिफ़ लिखूं
ऐब निकालें ऐब-जु शिकवा नहीं गिला नहीं।