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चांद से थोड़ी-सी गप्पें / शमशेर बहादुर सिंह
Kavita Kosh से
{एक दस ग्यारह साल की लड़की की बात}
गोल हैं ख़ूब मगर
आप तिरछे नज़र आते हैं ज़रा ।
आप पहने हुए हैं कुल आकाश
तारों-जड़ा;
सिर्फ़ मुंह खोले हुए हैं अपना
गोरा-चिट्टा
गोल-मटोल,
अपनी पोशाक को फैलाए हुए चारों सिम्त ।
आप कुछ तिरछे नज़र आते हैं जाने कैसे
-ख़ूब हैं गोकि!
वाह जी वाह!
हमको बुद्धू ही निरा समझा है!
हम समझते ही नहीं जैसे कि
आपको बीमारी है :
आप घटते हैं तो घटते ही चले जाते हैं,
और बढ़ते हैं तो बस यानी कि
बढ़ते ही चले जाते हैं-
दम नहीं लेते हैं जब तक बि ल कु ल ही
गोल न हो जाएं,
बिलकुल गोल ।
यह मरज आपका अच्छा ही नहीं होने में...
('प्रतिनिधि कविताएं' नामक संग्रह से )