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चान्द से रिश्ता / श्रीधर करुणानिधि

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       अपनी छत से जब भी देखो
लगता है
       लटका है चान्द
घर से सटे ठूँठ गाछ से
               गोल कोंहड़े-सा

कभी लगता है
एक बड़ा तरबूज़
लेटा हुआ है बलुआही ज़मीन वाले खेतों में बेख़ौफ़
या एक बास्केटबाल
उछला है कुछ देर के लिए
और टँगा रह गया है आसमान के नीले जाल में

गिलहरी के नन्हें हाथों में मटर का एक दाना
कुम्हार के पास उलटा रखा गोल पेंदी का घड़ा
लोहार के पास रखा लोहे का बड़ा गोला
घर में साफ़ कर उलटा रखा चमचमाता नया तसला
हर गोल वस्तु
जो किसी न किसी रूप में हमारे आस-पास रहती है
होकर बेहद क़रीब
दरअसल वो चान्द ही होती है
और सबसे ख़ूबसूरत नीला चान्द ही तो है हमारी पृथ्वी
सुबह-सुबह नदी से नहाकर निकला सूरज
एक ख़ूबसूरत लाल चान्द

छिट-पुट तारे-सजे आसमान के नीचे
रोशनी जले घरों में
चान्द ही होता है हमारे पास
लम्बी पुरवैया वाली रातों में
उड़ रहे होते हैं हम
चान्द के चमचमाते पंख पहनकर

क्या कोई निर्जीव चान्द टँगा रह सकता है
हमारे घर के आस-पास या बिल्कुल सामने !
रह सकता है इतने क़रीब हमारी ज़रूरत बनकर
कि जब हम परिन्दे तौलते हुए अपने पँख
खो जाएँ आसमान की ऊँचाइयों में
या हम अपनी ही दुनिया में हो जाएँ मशगूल
अपने आस-पास से बेख़बर
तो वह जगाए हमें या दे कोई संकेत

जितने क़रीब होते हैं हम चान्द के
       उतनी ही अपनी होती है हमारी आस-पास की दुनिया ...