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चाबियों के गुच्छे / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
वे चाबियों के गुच्छे की तरह थे
अपने-अपने तालों की खोज में
बिछुड़ गए थे
जहाँ वे थे उससे बहुत दूर
उन्हें जाना पड़ा था
कोई तालों के शहर में गया
कोई तिजोरियों के देश मे
रम गया
किसी के ताले बेरोज़गार थे
वे किसी भी हिकमत से
नही खुलते थे
हर चाबी की अपनी-अपनी
क़िस्मत थी
कुछ ऐसी चाबियाँ थीं जिससे
एक साथ कई ताले खुल
जाते थे
कुछ बेमेल चाबियाँ थीं जो तालों
के स्वभाव से मेल नही खाती थीं
उनका होना न होने के बराबर था
उन्हें इतने दिन बाद बदला भी
नही जा सकता था
उनके लिए ताले पहाड़ी दीवार
की तरह थे , खुल जा सिम सिम
कहने पर नही खुलते थे
जब कभी इकट्ठा होती थीं चाबियाँ
वे एक साथ बजती थीं
लेकिन पहले की तरह नही
होती थी उनकी आवाज़ ।