चारिम मुद्रा / भाग 2 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी
राखब ई ध्यान मुदा हे नृप
हो लोक व्यवस्थामे न अनृत
अतिरिक्त शेष धन हो तखने
स्वीकारब
जन सेवा अछि राजाक कार्य
कल्याण भाव अछि अपरिहार्य
दायित्वक पालन करी अहाँ
से चाहब’’
ऋषिकेर वचन सुनि नृप चिन्तित
सम्पदा सचिव दु्रत आमंत्रित
संचिका पठौलक तुरत राज-
सचिवालय
प्रस्तुत कयलनि नृप आय व्ययक
सम भाव सकल आमद खर्चक
कहलनि: ‘‘ऋष्ज्ञिवर! सेवामे अछि
कोषालय
चाही जतबा धन, ग्रहण करू
आदेश दिय’, संकोच हरू
इच्छानुसार धन पहुँचायब
आश्रमधरि’’
बजला ऋषि: ‘‘हे राजा न्यायी!
एकोटा मुद्रा नहि चाही
हो कष्ट प्रजाके से न सहब
जीवनभरि
एकटा काज क’ दिय’ अहाँ
बाजू, सम्भव धन प्राप्ति कहाँ’
राजा कहलनि: ‘हे ऋषि! हम
संग चलै’ छी
चर्चित अछि कतिपय राज वंश
धन बलमे जनु हो इन्द्र अंश
अतिरिक्त धनान्वेष्ज्ञनमे-
चलू बढ़ै छी’’
रथ बढ़ल, तीव्रतामे तुरंग
ऋषि तथा श्रुतर्वा संग-संग
राजा वघ्नश्वक राजमहलमे
रुकला
स्वागत सत्कार विनयपूर्वक
आतिथ्य श्रेष्ठ राजस भावक
किछुए क्षणमे आर्थिक स्थितिके
ऋषि जनला
आमद खर्चक सम दशा देखि
जन कल्याणक क्षमता परेखि
आगाँ बढ़बाक उपक्रम ऋषिवर-
कयलनि
आगाँ ऋषि, पाछाँ दूनू नृप
बढ़ला त्रसदष्युक ड्योढ़ी दिस
ओहूठाँ पुरने बात; निराशा
जगलनि
कयलनि मनमे लोपाक ध्यान
मुखमंडल किंचित क्वचित म्लान
लगलनि कि हँसै’ अछि लक्ष्मी
सयरस्वतीपर
याचना व्यथासँ दहकि देह
मनपर बरिसौल्क अग्नि मेह
झट उठि आश्रम दिस चलला
ऋषिवर सत्वर
थर-थर काँपल भयस नृपदल
शापक आशंका अति अ ध्वल
मंत्रणा कयल जे ऋषिके-
तुष्ट करी हम
अपनौने छी हम आर्य नीति
शोषणविहीन कल्याण रीति
तैयो धन हेतु न ऋषिके
रुष्ट करी हम
कर जोड़ि निवेदित कयल तथ्यः
‘‘हे ऋषि! बाजब अछि हमर सत्य
नप-कुल अतिरिक्त धनक दृष्टिये
विफल अछि
आतापि तथा वातापि दैत्य
सम्राट जकाँ निकटे रहैछ
शोषक अछि, धन संग्रहमे बहुत
सफल अछि
सौंसे समाज अछि तंग-तंग
कयने रहैछ ओ शान्ति भंग
अहँ चलू चलब हम संग-संग
हे ऋषिवर!
यद्यपि अछि पैघ अतिथिहंता
अहँ छी ते नहि कोनो चिन्ता
भय भाव नाम सुनला संता
हे कविवर!
करबैक अहाँ किछु दिव्य यत्न
असफल होयत दुष्टक प्रयत्न
पर्याप्त धनक उपलब्धि करब
निश्चित अछि
एकटा तीरसँ दू शिकार
संहार राक्षसक, समाहार-
अर्थक चिन्ताक, सुनिश्चित
आ इच्छित अछि’
नृप दलक निवेदनपर ऋषिवर
चिन्तन कयलनि, चढ़ला रथपर
आतापि उर्फ इल्वल-
स्वागतमे आयल
ठनकल माथा राजा लोकनिक
मायावी पहुँचल तड़ित त्वरित
ऋषिवरक नेत्र आ मुखमंडल
अरुणायल
दुष्टता नुकौने अन्तरमे
हँसि दैत्यराज सुमधुर स्वरमे
बाजल-‘गत राति एक
सपना देखल हम
‘‘कोनो दैवज्ञ प्रवासी ऋषि
बढ़ि आबि रहल छथि हमरा दिशि
ते छी स्वागतमे अति विनम्र
भावे हम
आतिथ्य हमर स्वीकार करू
चलि सपनाके साकार करू
बहुतो दिनसँ अछि राजभवन
लालायित
अर्पित हम करब अभीप्सित धन
अछि शुक्र-कृपासँ सभ साधन
हे गुरु गंधी मंत्रक! होयब-
आप्यायित’’
सुनलनि अगस्त्य इल्वलक वचन
कहलनि- ‘‘तथास्तु हे दनु कुल धन!’’
संकेतित रथ पहुँचल आतापि
भवनमे
इन्द्रासन सन सभ ठाठ-बाट
मणि माणिकमय सोनाक खाट
विस्मित नृप दल नयनित ऋषिवरक
नयनमे
उत्तरित शुभद आश्वस्ति भाव
कनखीसँ; मनमे ऋत प्रभाव
ऋष्ज्ञि प्रमुदित छथि उज्ज्वल-
भविष्य दर्शनसँ
साधना आइ किछु काज देत
इतिहास बनत आगस्त्य लेख
भस्मित भ’ जायत दैत्य
मंत्र घर्षणसँ
दोसर दिस दैत्यो अति प्रमुदित
जे ऋषिक संग ई तीनू नृप
मारल जायत बिनु तीर-धनुष
किछु क्षणमे
होयत निष्कंटक दनुज राज्य
कोनो अर्थे अवसर न त्याज्य
उत्साह अपरिमित आतापिक
तन मनमे
बनबौलक बहुव्यंजनी पाक
पीढ़ी लगबौलक चिक्य चाक
वातापि रूप भेंड़ाक माँस
रन्हबौलक
वातापि अनुज छल आतापिक
भेंड़ा बनि जाइत छल ओ नित
मांसाहारी अगणित ऋषिके
मरबौलक
मारै’, छल ओ मायाक मारि
निकलै, छल अतिथिक पेट फाड़ि
अग्रजक शब्द सुनि; से खिस्सा
प्रचलित छल
तें सूँघि-सूँघि माँसुक सुगंध
भ’ गेल नृप दलक आँखि बन्द
ऋषिसँ न गुप्त रहि सकल राक्षसक
छल-बल
नृप गणक पीठ पर हाथ फेरि
कहलनि ऋषि स्वरकें अति समेटि
चिन्ता न करू, एकसरे माँसु
खा जायब
नहि होयत कोनो टा अनिष्ट
छथि तेज तापमय हमर इष्ट
तांत्रिक विधिसँ वापापिक
माँसु पचायब
से भेल, माङि क’ ऋषि खयलनि
सभ माँसु स्वयं, झोरो पीलनि
प्रथमासनपर पद्मासन मारि-
शिरामे
परसैत रहल इल्वल सखेद
सूखल तीनू नृपकेर स्वेद
प्राणान्तक भय मेटल; गाम्भीर्य
गिरामे
किछु काल बाद आतापिक स्वर:
‘‘वातापि भाइ! आबह एम्हर’’
निकलल न मुदा ओ; ऋषिक
पेट नहि फटलनि
विह्वलतर स्वरमे दैत्यराज
कयलक जिज्ञासा लगातार
अनुजक नहि पता; अगस्त्य
विहुँसिक’ कहलनि:
‘‘कर दजुज मोह-मायाक त्याग
छौ’ व्यर्थ आब राक्षसी राग
पचलौक उदरमे अनुज; किए
भूकै छै
देवर्षि संग पाला पड़लौ’
वातापि बहुत पहिने मरलौ’
षड्यंत्री! अपन रहस्य खोलि
चूकै’ छैं!
थर-थर कापल आतापिक तन
आशंकासँ निष्प्रभ सन मन
बाजल: ‘कतबा आर्थिक-
सम्मान करी हम!’’
कहलनि ऋषि: ‘‘हानि प्रजाक न हो
सुविधानुसार धन ला, वा जो
लाभांशेटामे दानक माङ-
करी हम’’
देलक पर्याप्त राशि इल्वल
सुन्दर सुवर्ण रथ, अश्वक दल
सोना, गो, नव वस्त्राभूषण
ऋषिवरके
तहिना नृपगणो सुसम्मानित
वस्त्राभूषित, अर्चित, पूजित
देलनि सम मिलिक शुभाशीष
इल्वलके
बढ़ला ओ सभ चढ़िक’ रथपर
इल्वल प्रहार कयलक सत्वर
हुँहारे ऋषि इल्वलके-
भस्मित कयलनि
बढ़ला धन धान्यपूर्ण भ’ क’
राक्षस-संहारक यश ल’ क’
मुनिगण पथमे प्राफुल्य पुष्प
बरिसौलनि