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चारि टा पद्य / गजेन्द्र ठाकुर

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१.

मुँह चोकटल नाम हँसमुख भाइ

मुँह चोकटल नाम छन्हि हँसमुख भाइ,
बहुत दिनसँ छी आयल करू कोनो उपाय,
मारि तरहक डॉक्युमेंट देलन्हि देखाय,
पुनः-प्रात भऽ जायत देल नीक जेकाँ बुझाय,
शॉर्ट-कट रस्ता सुझाय देलन्हि मुस्काय,
मुँह चोकटल नाम हँसमुख भाय।

२.

काल्हि भोरे उठि ऑफिस जाइत छी,
आऽ साँझ घुरि खाय सुतैत छी।
कतेक रास काज अछि छुटैत,
अनठाबैत असकताइत मोन मसोसैत।
जखन जाइत छी छुट्टीमे गाम,
आत्ममंथनक भेटैत अछि विराम।
पबैत छी ढ़ेर रास उपराग,
तखन बनबैत छी एकटा प्रोग्राम।
कागजक पन्ना पर नव राग,
विलम्बक बादक हृदयक संग्राम।
चलैत छल बिना तारतम्यक,
बिना उद्देश्यक-विधेयक।
कनेक सोचि लेल,
छुट्टीमे जाय गाम।
विलम्बक अछि नहि कोनो स्थान,
फुर्तिगर, साकांक्ष भेलहुँ आइ,
जे सोचल कएल, नित चलल,
जीवनक सुर भेटल आब जाय।

३.

चित्रपतङ्ग
उड़ैत ई गुड्डी,
हमर मत्त्वाकांक्षा जेकाँ,
लागल मंझा बूकल शीसाक,
जेना प्रतियोगीक कागज-कलम।
कटल चित्रपतङ्ग,
देखबैत अछि वास्तविकताक धरा।
जतयसँ शुरू ओतहि खत्म,
मुदा बीच उड़ानक छोड़ैत अछि स्मृति,
उठैत काल स्वर्गक आऽ,
खसैत काल नरकक अनुभूति।

४.स्मृति-भय

शहरक नागरिक कोलाहलमे,
बिसरि गेलहुँ कतेक रास स्मृति,
आऽ एकरा संग लागल भय,
भयाक्रांत शिष्यत्व-समाजीकरणक।
समयाभाव,आऽ कि फूसियाहिंक व्यस्तता,
स्मृति भय आऽ कि हारि मानब,
समस्यासँ, आऽ भय जायब,
स्मृतिसँ दूर, भयसँ दूर,
सामाजिकरणसँ दूर - खाँटी पारिवारिक।

मुदा फेर भेटल अछि समय,युगक बाद,
बच्चा नहि, भऽ गेलहुँ पैघ;
फेरसँ उठेलहुँ करचीक कलम,
लिखबाक हेतु लिखना,मुदा
दवातमे सुखायल अछि रोशनाइ,
युग बीतल, स्मृति बिसरल, भेलहुँ एकाकी।


सहस्त्रबाढ़नि जेकाँ दानवाकार,
घटनाक्रमक जंजाल, फूलि गेल साँस,
हड़बड़ाकऽ उठलहुँ हम,
आबि गेल हँसी, स्वप्नानुशासन,
लटपटाकेँ खसलहुँ नहि, धपाक;
भ’ गेलहुँ अछि पैघ।
बच्चामे कहाँ छल स्वप्नानुशासन,
खसैत छलहुँ आऽ उठैत छलहुँ,
शोनितसँ शोनितामे भेल,
उठिकय होइत घामे-पसीने नहायल,
स्मृति-भयक छोड़ नहि भेटल,
ब्रह्मांडक कोलाहल, गुरुत्वसँ बान्हल,
चक्कर कटैत, करोड़क-करोड़मील दूर सूर्य,
आऽ तकर पार कैकटा सूर्य।
के छी सभक कर्ता-धर्ता,
आऽ जौं अछि क्यो, तऽ ओकर
निर्माता अछि के? ओह! नहि भेटल छोड़।
लेलहुँ निर्णय पढ़िकेँ दर्शन,
नहि करब चिन्तन, तोड़ल कलम,
करची आऽ दवात।