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चार कविताएँ / सौरभ

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एक

   सुबह से खड़े हैं मौन
    ये ध्यानी वृक्ष
लपेटे हैं कोहरे की चादर
इनकी लम्बी उग आई दाढ़ी पर बने
घोंसले में
चह-चहाता पक्षी
सहायक सिद्ध हो रहा है
इनके ध्यान में।
इस वक्त यह वृक्ष, चहचहाता पक्षी, सोया घास
मैं और भगवान
एकाकार हो गये हैं
यह प्रकृति
एक हो गई है इस समय।

दो

वह कौन सा काल है
जिसमें मैं नहीं था
था मैं हर काल में
हर काल में रहूंगा मैं
मैं अगर मैं में रहा इस तरह।

तीन

तुमने कहा था
मैं तुम्हें दूँगा प्राण
ग्रहण तो तुम ही करोगे
मैं तुम्हें दूँगा ज्ञान
ग्रहण तो तुमने ही करना है
मैं तुम्हें दूँगा सारी कायनात
ग्रहण तो तुम्हें ही करना है
और वह तुम सब कर पाओगे
जब तम अपना संसार छोड़
खाली हो जाओगे
घड़े की भांति।

चार

अनन्त-अनन्त है
अनन्त समय से
गंतव्य से गंता है महत्वपूर्ण
कार्यप्रकार से कार्यप्रणाली है महत्वपूर्ण
भगवान से भक्त
मुष्य में उसका शरीर नहीं
आत्मा है महत्वपूर्ण
मनुष्य के लिये अच्छे विचार वह कार्य नहीं
इनका स्रोत है महत्वपूर्ण
जीवन में जोश से होश है महत्वपूर्ण
पर से स्वयं है महत्वपूर्ण
सतत सिमरन से सतत बोध है महत्वपूर्ण।