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चार दिन इस गाँव में आकर पिघल जाते हैं आप / द्विजेन्द्र 'द्विज'

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चार दिन इस गाँव में आकर पिघल जाते हैं आप

पर पहुँच कर शहर में कितने बदल जाते हैं आप


आपके अंदाज़, हमसे पूछिए तो मोम हैं

अपनी सुविधा के सभी साँचों में ढल जाते हैं आप


आपके औक़ात की इतनी ख़बर तो है हमें

मार कर लँगड़ी हमें आगे निकल जाते हैं आप


कुश्तियों खेलों के चसके आपको भी खूब हैं

शेर बकरी पर झपटता है बहल जाते हैं आप


सिद्धियाँ मिलने पे जैसे मंत्र—साधक मस्त हों

शहर में होते हैं दंगे, फूल—फल जाते हैं आप


दूर तक फैली अँधेरी बस्तियाँ अब क्या करें

रौशनी की बात आती है तो टल जाते हैं आप


कारवाँ पागल नहीं जो आपके पीछे चलें

मंज़िलें आने से पहले ‘द्विज’ ! फिसल जाते हैं आप