चार दिन की ज़िन्दगी में / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
चार दिन की ज़िन्दगी में दो घड़ी का प्यार क्या है?
प्रीत के पथ पर मुसाफ़िर! जीत क्या है हार क्या है?
चार दिन की ज़िन्दगी से साँस का विद्रोह कैसा
दो घड़ी की चाँदनी से ज़िन्दगी को मोह कैसा
चार दिन की ज़िन्दगी में मान क्या अपमान क्या है?
दो घड़ी की साधना में शाप क्या-वरदान क्या है?
चार दिन के इस सफ़र में पार क्या है-धार क्या है?
चार दिन की ज़िन्दगी में दो घड़ी का प्यार क्या है?
रात भर तो घोंसलों में पंछियों का है बसेरा
और उसके बाद मिलता है उन्हें जलता सबेरा
आह! मन पंछी भटकता रह गया अपनी उमर भर
किन्तु प्यासा ही रहा वह सात सागर की लहर पर
प्यास बुझ पाई नहीं तो सिन्धु क्या है-ज्वार क्या है?
चार दिन की ज़िन्दगी में दो घड़ी का प्यार क्या है?
ओ मुसाफ़िर! ज़िन्दगी की राह के भटके हुए तुम
देख किस वीरान के सुनसान में अटके हुए तुम
देख! अब भी देख किस शमसान में भटके हुए तुम
देख रे पागल! किसी तूफ़ान में भटके हुए तुम
दो दिनों की रोशनी में फूल क्या है-ज्वार क्या है?
चार दिन की ज़िन्दगी में दो घड़ी का प्यार क्या है?
दो घड़ी की संगिनी क्या-दो पहर का मीत कैसा?
दो घड़ी की कल्पना क्या-दो पहर का गीत कैसा?
एक पल की ये बहारें-एक क्षण का रूप कैसा?
दो घड़ी की तपन क्या है-दो पहर का शीत कैसा?
चाँदनी बंधती नहीं तो रूप का आधार क्या है?
चार दिन की ज़िन्दगी में दो घड़ी का प्यार क्या है?
आदमी को बींध देता है नयन का तीर कैसे?
आंख से बहता भरम का द्वीप कैसे-नीर कैसे?
खींच लेता है चितेरा रूप की तस्वीर कैसे?
बाँध लेती आदमी को चाँदनी की पीर कैसे?
चाँदनी ख़ुद ही लहर है बोल फिर पतवार क्या है?
चार दिन की ज़िन्दगी में दो घड़ी का प्यार क्या है?
चार दिन की ज़िन्दगी में गा सको तो गीत गाओ
यार मेरे पास आओ खिलखिलाओ-गुनगुनाओ
ओ मुसाफ़िर! इस डगर के रूप को पहचान जाओ
चार दिन की ज़िन्दगी में बात मेरी मान जाओ
हो नहीं जिसमें समर्पण, रूप का शृंगार क्या है?
चार दिन की ज़िन्दगी में दो घड़ी का प्यार क्या है?
दो घड़ी का प्यार कैसा-दो घड़ी का रूठ जाना
प्यार से मिलना बिछुड़कर फिर विदा के गीत गाना!
दो घड़ी मधुमास का आना घड़ी में लूट जाना!
और पनघट पर गगरियों का बिखर कर टूट जाना!
फूल के आगे मुसाफ़िर! तीर क्या तलवार क्या है?
चार दिन की ज़िन्दगी में दो घड़ी का प्यार क्या है?