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चार पन्ने / आशीष जोग
Kavita Kosh से
इन्हीं चार पन्नों में सहेज रखा है जीवन,
इन्हीं दो बूंदों में छिपा रखी हैं,
न जाने कितनी स्मृतियाँ,
न जाने कितना सूनापन |
कभी देखा है गिरते तापमान में,
वह हिमगिरी हिमाच्छादित,
तो कभी असह्य चिलचिलाहट में,
वह रश्मिरथी मर्यादित,
इन्हीं दो ऋतुओं में समेट रखा है तन मन|
इन्हीं चार पन्नों में सहेज रखा है जीवन|
कभी दिन ढले गुनगुनाता हूँ,
वही गीत अतुकांत,
कभी रात ढले सुलझाता हूँ,
वही ग्रंथि अनादी अनंत,
इन्हीं दो प्रहारों में संजो रखा है हर क्षण |
इन्हीं चार पन्नों में सहेज रखा है जीवन|