चाहता मन है नित संयोग / हनुमानप्रसाद पोद्दार
चाहता मन है नित संयोग।
इसी से लगता दुखद वियोग॥
नहीं पर तनिक स्व-सुखकी चाह।
इसी से मुझे न कुछ परवाह॥
मिलन हो या हो नित्य विछोह।
किसी भी स्थिति में रहा न मोह॥
रही, बस, एक लालसा जाग।
बढ़े नित नव तुम में अनुराग॥
दुःख गुरु हो या सुख सुविशाल।
तुम्हारे सुखसे रहूँ निहाल॥
रहो तुम सदा परम सुखरूप।
मुझे सम है छाया औ धूप॥
नरकका डर न स्वर्ग की चाह।
न जाती कभी मुक्ति की राह॥
प्रेम-बन्धन नित रहे अटूट।
भले संकट से मिले न छूट॥
नहीं प्रतिकूल, न कुछ अनुकूल।
तुम्हारा सुख ही सब सुख मूल॥
तुम्हें यदि सुख हो, हे हृदयेश!।
विरह-दुख देगा दुःख न लेश॥
तुम्हारा वदन प्रफ्फुल्लित देख।
दुःख की नहीं रहेगी रेख॥
करो तुम अपने मनकी, नाथ!
छोड़ दो, चाहे रखो साथ॥
लगेगा शीतल दारुण दाह।
नहीं निकलेगी मुखसे आह॥
एक अनुभवयुत दृढ़ विश्वास।
सदा तुम रहते मेरे पास।
दिखायी पड़ो, रहो या गुप्त।
कभी होते न पास से लुप्त॥
छा रही सुखकी मुख-मुसकान।
यही, बस मेरे सुख की खान।
देख तुम रहे सभी सब काल।
सुखी मैं हूँ कि नहीं, हर हाल॥