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चाहते हैं वृक्ष से छाया घनी / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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चाहते हैं वृक्ष से छाया घनी
पत्तियों से कर रखी है दुश्मनी
खिड़की, दरवाजे़ लगा रक्खे हैं सब
और कहते हैं न आती रौशनी
जिसपे धुन मंज़िल की होती है सवार
धूप भी लगती है उसको चाँदनी
बिस्तरों की मांग हम करते रहे
तब कहीं जाकर मिली है आसनी
तुमको जन्नत का पता मिल जाएगा
प्रेम की पुस्तक पड़ेगी बाँचनी
क्या भरोसा दोस्तो इस दौर में
कौन, कब, किसको, कहाँ दे पटकनी
खुशनुमा माहौल भी भाता नहीं
ऐ ‘अकेला है तबीयत अनमनी