भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चाहत-2 / साधना सिन्हा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब तक
जब-तब तुम्हारी आँखें
प्रेम की महकी ललक से
झुक जाती हैं

चेहरा
इच्छा-अनिच्छा की
बातें
बहुत-सी कहता है

मैं पढ़कर भी
अनजान बना रहता हूँ
चाहत मेरी
अब भी
उसी ठौर
रूकी हुई है

पहले पहल
जहाँ
बाँहों में
तुम्हें समेटा था

चाहत का सूरज
मिटता नहीं
लौटकर
सुबह-सुबह रोज़!