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चाहत-2 / साधना सिन्हा
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अब तक
जब-तब तुम्हारी आँखें
प्रेम की महकी ललक से
झुक जाती हैं
चेहरा
इच्छा-अनिच्छा की
बातें
बहुत-सी कहता है
मैं पढ़कर भी
अनजान बना रहता हूँ
चाहत मेरी
अब भी
उसी ठौर
रूकी हुई है
पहले पहल
जहाँ
बाँहों में
तुम्हें समेटा था
चाहत का सूरज
मिटता नहीं
लौटकर
सुबह-सुबह रोज़!