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चाहत / उमा अर्पिता
Kavita Kosh से
हर वो सुबह
खुशबुओं में नहाई होती है, जब
तुम साथ होते हो…!
मुस्कराहटों के
खिले फूलों के बीच
भँवरे-सी भटकती आँखें
अपनी मौनता में भी
मुखर हो उठती हैं…!
एक चाहत है जो
कोंपलों की तरह
फूटने लगती है/भूल जाना चाहती है
झरे हुए पत्तों के दिन…
दिन, जो बहुत उदास थे/
बहुत लंबे थे--किसी गूँगे की
चुप्पी की भाँति,
दिन, जो अब
बसंत हो चले हैं
महकने लगे हैं, टेसुओं से
भिगो देने को आतुर
खुशबुओं के रंग में...!