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चाहूँ या कि न चाहूँ / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

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चाहूँ या न चाहूँ बहना ही होगा,
स्वर्ण-तरी जब उतर गई मझधार में!

एक खीझ ने पतवारों को फेका फेनिल नीर में,
आकृति-भर का भेद रह गया नैया और शरीर में;
गति पूरे यौवन पर, लेकिन यति का होता बोध है,
कैसी मेरी प्रगति, कि जिसमें ऐसा रोध-विरोध है;

मेरा क्या अपराध विधाता जो तूने,
मुझे चुन दिया लहराती दीवार में!

मेरे औ’ मेरे भविष्य के बीच सूर्य का तेज़ है,
क्या जाने आगे शर-शैया या सुमनों की सेज है;
लहरों ने दृग बाँध दिये हैं चकाचौंध के चिर से,
सारी संसृति घिरी हुई है दर्पण की प्राचीर से;

दृष्टि चतुर्दिक देखे कुछ ऐसे, जैसे,
अभी-अभी जनमी हो इस संसार में!

मैं गत-आगत भूल अनागत के रंगों में लीन हूँ,
राजकुँवर-सा दिवा-स्वप्न के स्यन्दन पर आसीन हूँ;
मनचाहा यह सपना टूटे, या-तो फिर साकार हो,
जो कुछ होता है, लेकिन ज्वारों का अवतार हो;

छूटे सब अपने, सपने पर जीना है,
जन्म कैद जो बहते कारागार में!