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चाहे लाख दबाओ दिख जाते हैं दिखने वाले लोग / सुजीत कुमार 'पप्पू'
Kavita Kosh से
चाहे लाख दबाओ दिख जाते हैं दिखने वाले लोग,
यूं ही चलते-फिरते बिक जाते हैं बिकने वाले लोग।
बातों में पड़ जाते हैं बिन सोचे ही लड़ जाते हैं,
आंखों के रहते अंधे होते हैं सुनने वाले लोग।
आता थोड़ा है लेकिन ज़्यादा करते रहते हैं सो,
बातों ही बातों पकड़े जाते हैं बनने वाले लोग।
बिस्तुइया-सी रंग बदलते ढंग बदलते फिरते हैं,
चिकनी-चुपड़ी करते हैं बातें वह ठगने वाले लोग।
जब-तब बात बनाते हैं गाल बजाते ही रहते हैं,
चलते-चलते ज्ञानी बनते बक-बक बकने वाले लोग।
खीर चटाते फिर जाते हैं जब चाहो मिल जाते हैं,
ख़ुद निंदा में ही रहते हैं निंदा करने वाले लोग।
लालच भारी होती उनकी आदत भी लाचारी है,
कुछ कहते ही हिल जाते हैं हिलने-डुलने वाले लोग।