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चाह सबकी है, मसला हो हल, दोस्तो ! / श्याम कश्यप बेचैन

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चाह सबकी है, मसला हो हल, दोस्तो !
कोई करता नहीं है पहल, दोस्तो !

अब दरिंदों के हक़ में ज़मीं हो गई
आदमी हो गया बेदख़ल, दोस्तो !

कश्मकश में रहूँ और कुछ न कहूँ
ऐसा पूछो न मुझसे मसल, दोस्तो !

और कीचड़ को बढ़ने दो चारों तरफ़
कीचड़ों में खिलेंगे कमल, दोस्तो !

झुग्गियों को ज़मीं से उठाएँगे अब
वो बनाकर हवा में महल, दोस्तो !