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चिंतन के आयाम / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
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उर अन्तर की पीड़ाओं का सम्मेलन जब जब आता।
जाने कौन पुरानी यादों को आमन्त्रण भिजवाता ?
बचपन यौवन के दिन कितन कोमल और सुनहरे थे,
जर्जर किया काल निर्जर ने मन रहता है पछताता।
रंगों की बौछार आज भी होती है पहले जैसी,
किन्तु उमंगों में उभार अब नहीं रंच भी है आता।
चिन्तन के आयाम निरन्तर बदल रहे मन चिन्तित हैं,
आत्मोत्थानिक दृष्टि पतन के रंगों में क्यों अटकाता ?
पवन झकोरों में उलझा है तिनके सा विश्वास विवश
निर्भय उड़ता मन का पंछी पंख रंगीले फैलाता।
फूलों ! अपनी गंध बचाओं गंधवाह जहरीला है
युग के प्रगतिशील हाथों से अम्बर भी है घबराता।
धरती के श्रृगार लूट मन श्रृंगारित होगा न कभी,
टुकड़े टुकड़े जीवन का आधार बिखरता है जाता।