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चिट्ठी / त्रिनेत्र जोशी
Kavita Kosh से
चिट्ठी
एक मुश्किल बयान है
चिट्ठी में लिखनी पड़ती है
मन की बात
अल्सुबह, चीं-चीं करती गौरैयों की तरह
ऎसे जैसे हवा का झोंका आता हो
किसी चोटी से
और बहुत देर तक याद रहता हो
दुख-सुख
कैसे करूँ उनका ज़िक्र
कैसे बताऊँ
कि जिस दाँत की मज़बूती से पैदा होता था-
आत्मविश्वास
वह कल ही गिर गया
जबड़े क्वे ऊपर खालीपन की एक स्थाई खन्दक खोदकर
इस ज़िन्दा दाँत की जड़ों का नहीं कोई अता-पता
जोड़ों में फ़ँसते जा रहे दर्द
और सिमटती माँसपेशियों का रूखापन
उँगलियों की हर गाँठ में
उबलती एक जलन
पुतलियों में धुँधला रहे दृश्य
सूखे से दरकी ज़मीन से
सपने
एक थकी हुई भाषा
एक हारा हुआ जीवन
एक खिसियाई अन्तर्दृष्टि
चिट्ठी का सारा मजमून
और डाक-टिकट
कुछ भी तो नहीं है पास में