चिड़िया / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
बासन्ती रात है। मैं बिछौने पर सोया हुआ हूँ-
अभी बहुत रात
नींद से बोझिल आँखें बन्द नहीं होना चाहतीं।
उधर सुनाई पड़ता है समुद्र का हाहाकार
सिर के ऊपर स्काईलाइट
आकाश में चिड़ियाँ परस्पर बतियातीं
आकाश में न जाने कहाँ उड़ जाती हैं?
चारों ओर उनके डैनों की गन्ध तैरती है।
बसन्त की रात शरीर में भर आया है स्वाद
आँखें चाहती नहीं सोना।
जंगले से आती है उस नक्षत्र की रोशनी उतरकर,
सागर की पनीली हवा में
मेरा मन आराम पा रहा है,
सब ओर सभी सो रहे हैं-
सागर के इस किनारे किसी के आने का समय हुआ है?
समुद्र के पार बहुत दूर-और उस पार-
किसी एक मेरु पर्वत पर
रहती थीं ये चिड़ियाँ
बिल्जार्ड की मार से उन्हें समुद्र में उतरना पड़ा था
मनुष्य जैसे अपनी मौत की अज्ञानता में उतरता है।
बादामी-सुनहले-सफ़ेद फड़फड़ाते डैनों के भीतर
रबर जैसी छोटी गेंद बराबर छाती में बन्द उनका जीवन-
जैसे रहती है मौत लाखों-लाख मील दूर समुद्र के मुख पर
वैसे ही अतल सत्य होकर।
जीवन कहीं है-और जीवन का आस्वाद भी है अवश्य।
सागर की कर्कश गरज से अलग कहीं नदी का मीठा पानी भी है-
कंदुक-सी छाती में रहती है यह बात,
कीं पड़ा है पीछे शीत और सामने ही है उम्मीद
यही सोचते वे आये हैं।
फिर किसी खेत में अपनी प्रिया को लेकर चले जाते हैं-
रास्ते में, बातों-बातों में बने रिश्ते के बाद अंडे देने।
सागर का बहुत नमक मथने के बाद मिली है यह मिट्टी
और मिट्टी की गन्ध
प्यार और प्यारी सन्तान,
अपना नीड़,
बहुत गहरा-गहरा उनका स्वाद।
आज इस बासन्ती रात में
नींद से बोझिल पलकें मुँदना नहीं चाहतीं,
उधर समुद्र का स्वर,
स्काईलाइट सर के ऊपर,
आकाश में चिड़ियाँ बतिया रही हैं-परस्पर।