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देखा, घूँघट निकाले
दुल्हन बनी नादान-सी
नाजुक-सी मैं आई हूँ ससुराल
जहाँ मुझे जानना था सबको
मन मैं थी एक आस
बनने की एक आदर्श ! किया प्रयास
सहा भी सब कुछ
जुटी रही पढ़ाई में
झाड़ू-पोंछा, कपड़े धोना, खाना बनाना,
कोयले तोड़कर अँगीठी सुलगाना
चूल्हे में रोटी सेकना
बडों की सेवा करना
साथ में पढ़ाई की सीढ़ियाँ चढ़ना !
सब कुछ किया पता नहीं सबको
संतुष्ट कर पाई या नहीं
ससुराल में सभी को दे पाई
प्रसन्नता या नहीं ?
आज भी प्रश्न मन में कौंधता है !