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चित्रकार ने कहा तिरस्कार से / प्रकाश मनु

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बूढ़े चित्रकार की
बूढ़ी और बैचेन आंखों ने देखा मुझे
बनैली व्यग्रता से
भींचते हुए प्रेमान्मत्त बांहों में
पूछा आहिस्ता से
-अच्छा बताओ, चित्र कैसा लगा तुम्हें
देखो, बताना जरा साफ-साफ
बिल्कुल सही शब्दों में।

ओह।
हिचकिचाया इस बात पर
जरा नहीं, काफी हिचकिचाया मैं
सोचा-क्या कहना चाहिए आखिर?
सामने थीं झोंपड़ियां चित्र में...
दूर तक गई झोंपड़ियों की धूसर कतारें कई
मोटी-महीन
एक नाला गंदा-सा आस-पास घास, कुछ पौधे
लोग इक्का-दुक्का, यही बस।

अब भई, झोंपड़ियां थी
(सदा की भांति।)

इसमें क्या खास बात...
गो कि निकल रहा था सभी से धुआं
सभी थीं भरपूर जिंदा बनाई गई करीने से
कुछ पुती्र साफ-सफेद कुछ मटमैली
उन पर लाल सतिए बने थे गेरू से

-देखा फिर एक बार चित्र
फिर बोला सोचकर-ठीक ही है महाशय।

ठीक-बस ठीक...।
हंसा चित्रकार आ-हा-हा-हा-हा
(जैसे हंसी को दौरा पड़ा हो उसे।)
हंसी उस बूढ़े चित्रकार की बूढ़ी, पैनी
पनीली आंखें-
यकायक हंसते-हंसते आ गए आंसू-
बोला-यकीन मानो
जितनी भी ये झोंपड़ियां है कतारों की कतार
-इनमें हर झोंपड़ी में कम से कम
एक तो जरूर है जवान औरत

पकाती हुई खाना
सिंगार करती हुई दरपन में सपना
सुख-दुख मंहगाई के जाल में उलझी रूप की डाल
इसमें जोड़ती पैसा-पैसा गृहस्थी का सुख
...हर झोपड़ी में है बहुत कुछ
तुम्हें बस, दिखाई ही नहीं दिया!!

और फिर छतफाड़ ठहाका दाढीदार
गूंजता देर तलक हवा में
मैं इतना शरमिंदा हुआ पाठक-मेरे बुद्धिमान पाठक
जितना कभी-कभी ही कोई जिंदगी में होता है।

और जब गया चित्रकार
चला गया समेटकर अपने चित्र अपनी
रंगों की माया-
मुझे दिखाई दिया सचमुच झोपड़ियों के भीतर जो कुछ था
कुछ नहीं, बहुत कुछ...
हंसता हुआ दुख के काले-काले होंठों पर
लाल बांसुरी की तरह।

बस, मेरी चर्बी मढ़ी आंख में पहले
वह बैठा ही नहीं था।