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चित्र-कथा / विमलेश शर्मा

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एक श्रावणी भोर
ऋतु अपने नेहबिंदुओं से
अभिषेक कर रही थी
और मैं सोई थी चुपचाप
कर्णिकार सेज पर!
अनासक्त बयार में
मैं सुन रही थी एक पदचाप
जो काल धीरे-धीरे
मेरी-तुम्हारी
अनाविल देह पर डाल रहा था!
पलकों में एक वेदना थी कि
पश्चिम याने से उदयन तक का सफ़र
बहुत भारी रहा
पर जाना कि उदयाचल का संस्पर्श
कर्म का निर्माता भी तो है!
सृष्टि के निगूढ़ रहस्यों को समझना किसी कालपथ का घूर्णन है!
इसी गति से कुम्हलाया एक दिन फिर मृणाल में सोया है!

टहनियों की विनम्रता
पीपल की झकझोर
साँझ की झाँईं
और नीलाकाश
सब टटोल रहे हैं उसे
जो अभी-अभी क्षितिज-गर्भ में डूबा है

जो जन्मेगा फिर यहीं
इसी काल-भाल पर
पृथिवी के शुभ्र उत्सव की तरह
नीलाभ आयुशंख पर फिर-फिर कौमुदीपति बन!