चित्र मावस का / राकेश खंडेलवाल
राहें ठोकर लगाती रहीं हर घड़ी
और हम हर कदम पर संभलते रहे
कट रही जिन्दगी लड़खड़ाते हुए
स्वप्न बनते संवरते बिगड़ते रहे
चाह अपनी हर इक टँग गई ताक पर
मन में वीरानगी मुस्कुराती रही
आस जो भी उगी भोर आकाश में
साँझ के साथ मातम मनाती रही
अधखुले हाथ कुछ भी पकड़ न सके
वक्त मुट्ठी से पल पल खिसकता रहा
शब्द के तार से जुड़ न पाया कभी
स्वर अधूरा गले में सिसकता रहा
कोई भी न मिला मौन जो सुन सके
सुर सभी होंठ पर आ बिखरते रहे
जेठ गठजोड़ मधुबन के संग कर रहा
कोंपलें सब उमीदों की मुरझा गईं
टूट कर डाल से उड़ गये पात सी
आस्थायें हवाओं में छितरा गईं
देह चन्दन हुई, सर्प लिपटे रहे
मन के मरुथल में उगती रही प्यास भी
कल्पनाओं के सूने क्षितिज पर टँगा
पास आया न पल भर को मधुमास भी
हाथ में तूलिका बस लिये एक हम
चित्र मावस का था, रंग भरते रहे