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चित दै चितै तनय-मुख ओर / सूरदास

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चित दै चितै तनय-मुख ओर ।
सकुचत सीत-भीत जलरुह ज्यौं, तुव कर लकुट निरखि सखि घोर ॥
आनन ललित स्रवत जल सोभित, अरुन चपल लोचन की कोर ।
कमल-नाल तैं मृदुल ललित भुज ऊखल बाँधे दाम कठोर ॥
लघु अपराध देखि बहु सोचति, निरदय हृदय बज्रसम तोर ।
सूर कहा सुत पर इतनी रिस, कहि इतनै कछु माखन-चौर ॥

भावार्थ :--सूरदास जी कहते हैं- (गोपी कह रही है-) तनिक मन लगाकर (ध्यान से) पुत्र के मुख की ओर तो देखो । सखी ! तुम्हारे हाथ में भयानक छड़ी देखकर यह भय से इस प्रकार संकुचित हो रहा हो । सुन्दर मुख पर अरुण एवं चञ्चल नेत्रों के कोनों से टपकते आँसू शोभित हो रहे हैं । कमल-नाल से भी कोमल इसकी सुन्दर भुजाओं को तुमने कठोर रस्सी से ऊखल के साथ बाँध दिया है । इसके छोटे-से अपराध को देखकर मुझे बहुत चिन्ता हो रही है; किंतु तुम तो निर्दय हो, तुम्हारा हृदय वज्र के समान कठोर है । अरे, पुत्र पर इतना क्रोध भी क्या, बताओ तो इतना कितना अधिक मक्खन इसने चुरा लिया ।'