भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चिनीक-सी पीड़ / चंद्रप्रकाश देवल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बेटा!
आ धुराऊ दिस वाळी
बारी मत उघाड़
आ आऊवा कांनी खुलै

थंनै ठाह कोनी
इण दिस सूं अेक मीठी-मीठी
अबोलीसीक पीड़ आय बाजै
आ अणूंती दुखदेवी कोनीं
जिणसूं कंाई व्हियौ
आ बारी मांय कर आवणी सरू व्है तो ढबै ई कोनीं
जांणै रात रा मोखी सूं अंधारा सूं भर जावै
ठीक उणी गत ज्यूं ठारी सूं भर जावै

आंसु वाळी छोटीसीक पीड़
अेक ओळूं है जूंनी
जिकी सूकड़ी नंदी री रंजी सागै
कणाकली उडगी
व्योम में आज उण घटना रा खोज ई नीं लाधै

पण घटना सूं विलग व्हियोड़ी
अेक झीणी बारीक-सी पीड़ है
जिणनै चिंतार-कांईं बागोल-बागोल
म्हैं अेक अंजस रा नसा में तीर व्है जाऊं
म्हैं अेक अंजस रा नसा में तीर व्है जाऊं
पीड़ री तासीर मजा में बदळ जावै
अर बगत टुळकतौ-मुळकतौ नीसर जावै
म्हैं ई कोई इणरौ बंधाणी तौ कोनीं
पण आप बायड़ रौ कांई कर सकौ ?

सिवाय ओवरा री धुराऊ कूंट वाळी
बारी नै ओडाळण टाळ

मन करै
इण पीड़ नै लूण री पोटली भेळी बांध’र
वांरै भाता सागै धर दूं
जिकां आंचाआंच में
खारची रा टेसण सूं नांणा रै देस जावती
रेल रै लटकण नै ऊभा है

ओ नीं बण आवै
तौ मन करै
इण छोटीसीक सुवांवती पीड़ नै
कपड़-छांण कर
काजळ रै कूंपळै रळाय दूं
जिणसूं आ आंजीज जावै मानुस-आंख में
अर वठै वा दीसबौ करै

आ नेन्हीक-सी पीड़ नेन्हीक बात नीं है
आ ओळूं जैड़ी विरळ पीड़
राज रा होकमां तळै
घिस-घिस व्हियोड़ी
मिनख रो सिरोळी अबखायां रै इतिहास री रंजी है
अेक कदीमी रज
जिकी आदमी री आंख में किरकिरै कोनीं
पण म्हारी आंख जळजळी व्हैजा
इण सारू
बेटा! आ धुराऊ दिस वाळी बारी मत उघाड़
आ आऊवा कांनी खुलै


हिन्दी अनुवाद

मीठी-सी पीड़ा

बेटा!
कमरे की उत्तर दिशा वाली खिड़की मत खोल
यह आऊवा की ओर खुलती है

तुझे नहीं पता इस दिशा से एक मीठी-मीठी
अबोली सी पीड़ा चली आती है
यह अधिक कश्टकारी नहीं
इससे क्या हुआ
यह खिड़की से होकर आना शुरू होती है
तो ठहरती ही नहीं
जैसे रात को मोखी के रास्ते अंधेरे की सीर आती है
और पूरी कोठरी अंधेरे से भर जाती है
उसी तरह जेसे ठंड से भर जाती है

यह कोमल छोटी-सी पीड़ा
एक स्मृति है पुरानी
जो सूकड़ी नदी की महीन रेत के साथ
हवा में कभी की उड़ गई
व्योम में आज उस घटना के चिन्ह नहीं मिलते

घटना से विलग हुई
एक बारीक-सी पीड़ा
जिसे याद कर नहीं, जुगाली कर-कर
मैं एक गर्व के नशे से भर उठता हूं
पीड़ा की तासीर मजे में बदल जाती है
और समय मुस्कराता-गुड़कता निकल जाता है
मैं भी कोई इस नशे का आदी नहीं
पर हुड़क का आप क्या कर सकते हैं?

सिवाय
उत्तर दिशा वाली खिड़की बंद करने के

मन करता है
इस पीड़ा को नमक की पोटली में बांध कर
उनके पाथेय के साथ धर दूं
जो खारची जंक्शन से कमाई के देश जाती रेल से
लटकने की हड़बड़ी में हैं

यदि यह न हो सके तो मन करता है
इस हलकी सुहाती पीड़ा को
कपड़-छान कर
किसी सुरमेदानी में मिला दूं
जिससे वह सुरमे के साथ अंज जाए मानुश आंख में
और वाहं वह नजर आती रहे

यह मामूली-सी पीड़ा मामूली नहीं है
यह स्मृति जैसी झीनी पीड़ा
राजाज्ञाओं तले पिस कर बनी
आदमी की साझी पीड़ा के इतिहास की रज है
एक कदीमी रज
जो सामान्यतः आदमी की आंख में रड़कती नहीं
पर मेरी आंख इस किरकिर से नम हो जाती है
इसलिए बेटा!
इस उत्तर दिशा वाली खिड़की को मत खोल
यह आऊवा की ओर खुलती है