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चिरऽईया मोरी सुबुक-सुबुक कर रोये / दीपक शर्मा 'दीप'
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चिरऽईया मोरी सुबुक-सुबुक कर रोये
चिरऽईया मोरी सुबुक-सुबुक कर रोये...
नयनन सपना ढोय रही थी
बहुत अनंदित होय रही थी
अब इक-इक कर खोये
चिरऽईया मोरी सुबुक-सुबुक कर रोये
अनजाना इक राही आया
मीठी बतिया मन भटकाया
निज गृह से कर धोये
चिरऽईया मोरी सुबुक-सुबुक कर रोये
रात अटरिया चानना देखी
मोहित होय के उर को फेंकी
अब विरहन सी सोये
चिरऽईया मोरी सुबुक-सुबुक कर रोये
केश बिखेरे साँझ सांवेर
निज-मन निज तन नहीं पग फेरे
अँसुअन अँचरा धोये
चिरऽईया मोरी सुबुक-सुबुक कर रोये