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चिराग़-ए-माह लिए तुझको ढूंढती घर घर / परवीन शाकिर
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चिराग ए माह लिए तुझको ढूँढती घर घर
तमाम रात मैं याकूत चुन रही थी मगर
ये क्या कि मैं तिरी ख़ुशबू का सिर्फ जिक्र सुनूँ
तू अक्स ए मौजा ए गुल है तो जिस्म ओ जाँ में उतर
गए दिनों के त आ कुब में तितलियों की तरह
तिरे ख्यालों के हमराह कर रही हूँ सफ़र
ठहर गए हैं क़दम रास्ते भी ख़तम हुए
मसाफ़तें राग ओ पै में उतर रही हैं मगर
मैं सोचती थी तिरा कुर्ब कुछ सकूँ देगा
उदासियाँ हैं कि कुछ और बढ गई मिलकर