भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चिरागों को बुझते जो / हरेराम बाजपेयी 'आश'
Kavita Kosh से
बदन के फाड़ कर कपड़े, कफन की बात करते हैं,
उनकी इंसानियत तो देखो, जो कब्र से प्यार करते हैं।
क्या कहूँ, कैसे कहूँ कब तक कहूँ बतलाइये,
कायदों के तोड़ कर ताले बन्द की वे बाते करते हैं।
बिन बुलाई भीड़ सड़कों पर, हाथ में लाठियाँ पत्थर,
बनाना देश है जिनको, वे मिटाने की सौगन्ध करते हैं।
जलाकर बाज़ार घर-दफ्तर महज नाराजगी दिखाना है,
कि जिनके पैर वे तोड़ें, उन्हीं से भागने की बात करते हैं।
घोपते पीठ में चाकू बेकाबू हाथ जब होते,
चीन कर रोटियाँ मुँह की, पेट की वे बात करते हैं।
चिरागों को बुझाते जो, वही रौशन चिरागे "आश"
बुलावा मौत के देकर, ज़िन्दगी की बात करते हैं॥