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चिलचिलाती धूप में परछाइयाँ कैसे मिलें / हरिराज सिंह 'नूर'

चिलचिलाती धूप में परछाइयाँ कैसे मिलें?
दूर हैं हमसे, हमें रा’नाइयाँ कैसे मिलें?

जिस धमाके से ज़मीं तक धँस गई, उसके सबब,
आदमी को पुर सुकूं तन्हाइयाँ कैसे मिलें?

खोज की इन्सां ने लेकिन वो भी थक के सो गया,
शुहरतों की और अब ऊँचाइयाँ कैसे मिलें।
 
शाम का आलम हसीं और चाय की वो चुस्कियाँ,
दूर तुम, महकी हुईं परछाइयाँ कैसे मिलें?

नाच-गाने तो बहुत होते हैं हर बारात में,
‘नूर’ पर नग़्मा-सरा शहनाइयाँ कैसे मिलें।