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चिलमन की गवाही / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
जैसे ही बाहर आई
कठोरता से लड़कर
कांटो पर चलकर
हौले हौले
पंखुड़ी की चिलमन में
जुंबिश हुई
झांकना चाहा
बाहर की दुनिया को
पेड़ के अधीन रहने की
परंपरा को तोड़कर
उन्मुक्त, विस्तार देना चाहा
जबकि बसन्त
अपने पूरे दांव पेच से
सवार था उस पर
हवा भी तो छू—छू कर
बार-बार उसे चिढ़ाती रही
उसके सिकुड़े, अधूरे तन को
डुलाती रही पेड़ की रची सीमाओं में
चिलमन की चुन्नटे
कैद दायरे में
कसमसाती रही
दूर आसमान में
तड़प के ताप से बने
बादलों की बूंदों ने
रिमझिम फुहारों की दस्तक दे चिलमन को
धरती की ओर झुका दिया
अब सांसे दुश्वार थी
वह हांफती अंतिम सांसों में
हवा के कंधों पर सवार
चिलमन
एक अधखिली कली की
गवाही बन
धरती पर बिखर गई