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चिह्न बचे होंगे क्या / बोधिसत्व

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याद आई वह लड़की

जिसकी अभिलाषा की थी कभी

याद आया

एक पेड़ के पैरों में जलता

निर्बल दिया ।


वे रातें

जिन्हें हम भुने आलू की तरह

जेबों में भरकर सो जाया करते थे


वे जगह-जगह जली हुई

चटख रातें

नमकीन धूल से भरी हमारी नींद

और वे तारे जो गंगा के पानी में

ठिठुरकर जलते रहते थे ।


कहीं गवाँ आया हूँ

इन सबको ।


ऎसा लगता है कि मेरे पास

कभी कुछ था ही नहीं

ऎसे ही खाली थी जेब

जी ऎसे ही फटा है पहले से ।


गंगा से इतना विमुख हो चला हूँ

कि जैसे उससे कोई नाता ही न हो

उसका रस्ता तक भूल गया हूँ

जैसे उसके तट तक

मझधार तक जाना न होगा कभी !


और वह लड़की

जो मेरे लिए थी स्लेट की तरह काली

पड़ी होगी कहीं

किसी घर के कोने में

किसी विलुप्त हो चुके बस्ते की स्मृति में,


टूटकर उस पर

जो कुछ मैंने लिखा था कभी

उसके चिह्न बचे होंगे क्या

अब तक ।