चुटकी भर जीवन / ओम नीरव
प्यार करूँ किस भाँति प्रिये तुमसे अपना लहकाकर जीवन।
काम पड़े मटकी भर हैं पर शेष बचा चुटकी भर जीवन।
आपस में घड़ियाँ-लड़ियाँ बहतीं रहतीं मिलतीं सरिता सम,
पीकर तृप्त हुआ न कभी कुछ पागल-सा यह सागर-जीवन।
रूपसि-मृत्यु मिली मग में पर हार थकी सब भाँति रिझाकर,
जो इस पार वही उस पार रुका न कभी यह-निर्झर जीवन।
नेह लगा जिस गेह बसा वह छूट गया न हुआ अपना घर,
हार न मान रहा अब भी वह खोज रहा अपना घर जीवन।
और जिये कुछ और जिये यह चाह लिये रहता अति व्याकुल,
रुग्ण असाध्य पड़ा तन-मोह भरा दिखता अति कातर जीवन।
कामुक को मदमत्त करें बनके रति-साधन जो उकसे उर,
वे सच में सबसे पहले शिशु के हित पेय पयोधर जीवन।
तर्क-वितर्क न रंच रहे अनुभूति यथावत ही रख नीरव,
भाव भरा रच छंद वही जिसका हर अक्षर-अक्षर जीवन।
आधार छंद-किरीट सवैया
मापनी (वर्णिक) -गालल 8