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चुड़ैल / शर्मिष्ठा पाण्डेय

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लम्बे घने काले बाल छितराए
रात की घूरती लाल आँखों
के नीचे पत्तों वाले रोंगटे खड़े किये
झुरझुराता पीपल
उसके उलटे पैरों की पदचाप
सुन सिहर उठता है
नीचवंश्जन्मी/अजन्मी ,उन्मादिनी का
हृदयविदारक तरल विलाप सोख लेता है
अपनी सहस्त्र भुजाओं में और दूध बनकर शिराओं से
टपकता है वह रहस्यमयी क्रंदन
सारी आहें धर लेती हैं पत्तियों के बीच
विभाजित प्रकोस्ठकों का सा रूप
प्रत्येक डाल पर बाँधी गयी अतृप्त ब्रह्म प्रेत आत्माओं के
जनेऊ और लाल कौपीन
वाली पोटली में कुछ नहीं शेष सिवाय तिरस्कृत अतीत के

सीवान पार नजदीक के गाँव में
दिन डूबते ही बांस वाले झुरमुट के पीछे
चुपके से खड़ी
वो प्रतीक्षा करती है
अलाव के बुझ जाने के बाद
भीतर अधबुझी चिंगारी वाले राख के बीच गलती से छूट गए
कुछ सौंधे भुने आलुओं को झपट लेने की

हाय! विधाता भूख से ऐंठती अंतड़ियों को
सीधा करने की खातिर
तरह-तरह के जतन करती वह
मनोविक्षिप्त रच डालती है
नए क्षुधा-गीत
जो न समझे जा सके
न फिर गाये जा सके
जिसे समझ कर मृत्युविलाप
बंद कर लेते हैं सभी अपने किवाड़

कहीं गाय की नाद के पास
भूलवश पड़े रोटी के टुकड़े और मुनिया के लाल फीते
को आँचल में छुपा आनंद की पराकास्ठा से करती है अट्टहास !!
हा हा हा हा हा
हाँ! वही 'चुड़ैल