Last modified on 19 अप्रैल 2014, at 17:19

चुनाव-काल में एक उलटबांसी / शिरीष कुमार मौर्य

सड़क सुधर रही है
मैं काम पर आते-जाते रोज़ देखता हूँ
उसका बनना

गिट्टी-डामर का काम है यह
भारी मशीनें
गर्म कोलतार की गंध
ये सब स्‍थूल तथ्‍य हैं और हेतु भर बताते हैं
प्रयोजन नहीं

मैं जैसे शब्‍दों के अभिप्रायों के बारे में सोचता हूँ
वैसे ही क्रियाओं के प्रयोजनों के बारे में

अगर कुछ सुधर रहा है तो मैं उत्‍सुक हो जाता हूँ
सड़क सुधर रही है तो हमारी सहूलियत के लिए
लेकिन यह भी हेतु ही है
प्रयोजन नहीं है

प्रयोजन तो इन सुधरी हुई सड़कों से सन्निकट चुनाव में सधने हैं
राजनेतागण आराम से कर सकेंगे
अपनी यात्रा
यात्रा की समाप्ति पर इसे अपनी उपलब्धि बता पाएंगे

ये सब बहुत सरल बातें हैं पर इनकी सरलता
विकट है
हम सुधरने से पहले की बिगड़ी हुई सड़कों पर चले थे
कुछ गड्ढे तो हमने हारकर ख़ुद भरे थे

तो जटिलता अब यह है
कि बिगड़ी हुई सड़क पर चले लोग
क्‍या चंद दिनों में सुधरी हुई सड़क पर चलने से
सुधर जाएंगे

इस कवि को छुट्टी दीजिए पाठकों
क्‍योंकि आप तो समझते ही है
अब राजनेताओं को समझने दीजिए यह उलटबांसी

कि बिगड़ी हुई सड़क पर चले हुए लोग
उनकी सेहत में सुधार लाएंगे
या वहां हुए कुछ चालू सुधारों पर चलते हुए
उसे और बिगाड़ जाएंगे।