भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चुपचाप / पुष्पिता
Kavita Kosh से
आँखों के भीतर
आँसुओं की नदी है ।
पलकें मूंदकर
नहाती हैं आँखें।
अपने ही आँसुओं की नदी में
दुनिया से थक कर ।
ओठों के अन्दर
उपवन है,
जीते हैं— ओंठ
चुप होकर स्मृति
प्यास से जल कर
एकाकीपन की आग में ।
हृदय की वसुधा में
प्रणय का निर्झर नियाग्रा है
मेरे लिए ही झरता हुआ… ।