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चुप होने के पैसे चार / विष्णुकांत पांडेय
Kavita Kosh से
अम्माँ से ले पैसे चार,
मुन्ना जी पहुँचे बाज़ार।
टाफी बिकती है किस भाव,
दे दो पैसे-मिला जवाब।
दो दो मुझको दो टाफी,
दो टाफी ही है काफी।
लौटे जब मुन्ना जी घर,
टाफी एक जीभ पर धर।
लगे सोचने मन ही मन,
आया अहा, मधुर सावन।
टाफी एक रोप दूँ आज,
बन जाएगा अपना काज।
रोज पड़ेगी जल की धार
कभी झमाझम, कभी फुहार।
हरियाली होगी अब ओर,
अंकुर निकलेगा पुरजोर।
घर में हो टाफी का पेड़,
मिला करेगी टाफी ढेर।
हुई कई दिन तक बरसात,
जमी न टाफी खटकी बात।
एक रोज हो गए निराश,
तब आए अम्माँ के पास।
अम्माँ हँसी, हँसे सब लोग,
मुन्ना जी ने रच दी ढोंग।
चुप होने के पैसे चार,
लेकर फिर दौड़े बाज़ार।