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चुभते दिन और ज़हरीली काली रातो ने आ घेरा/वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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चुभते दिन और ज़हरीली काली रातों ने आ घेरा
यारो हमको कैसे-कैसे हालातों ने आ घेरा
इक अरसे के बाद मुझे फिर आज तुम्हारी याद आई
छलके हैं पथराये नैना जज़्बातों ने आ घेरा
वो लाए तशरीफ़ तो उनको घेरा सारी महफ़िल ने
और फिर महफ़िल को उनकी मीठी बातों ने आ घेरा
फ़सलें उम्मीदों की कटने के लायक हो आयी थीं
लेकिन मौसम बदला लम्बी बरसातों ने आ घेरा
वो बुझती चिन्गारी यारो आग न बन जाये देखो
उसको आवारा से कुछ सूखे पातों ने आ घेरा
ऊब चुके थे जीवन से हम दे भी देते जान मगर
जब भी ऐसा सोचा, कुछ रिश्ते-नातों ने आ घेरा
होता है बेकार ‘अकेला’ तनहाई का आलम भी
अच्छा है, दिल को यादों की बारातों ने आ घेरा